श्री ज्वाला माता जी
श्री ज्वालामुखी मंदिर
माताजी ज्वाला मुखी मंदिर भारत के हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में स्थित एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है। यह देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है और देवी ज्वालामुखी को समर्पित है, जिन्हें 'ज्वलंत मुख' की देवी भी माना जाता है। किंवदंती है ,कि यह वह स्थान है जहां देवी सती की जीभ पृथ्वी पर गिरी थी जब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उनके शरीर को काट दिया था। वह माँ दुर्गा के रूप में पूजनीय हैं जो यहाँ चट्टान में ज्वाला के रूप में प्रकट होती हैं। मंदिर में कुल नौ ज्वालाएं प्रज्वलित हैं, जो नौ देवियों - महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विन्ध्यवासनि , महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजी देवी का प्रतिनिधित्व करती हैं और उनके नाम पर भी हैं। इन पवित्र ज्वालाओं की पूजा करने के लिए पूरे भारत से बड़ी संख्या में भक्त वर्ष के दौरान मंदिर में आते हैं।
श्री ज्वालामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्थित कालीधर की घाटी में समुद्र तल से 600 मीटर की ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्थित है। जिला मुख्यालय धर्मशाला से इस पवित्र स्थान की दूरी 50 कि. मी. है। यहां तक पहुंचने के लिए श्रद्धालु सड़क, रेल और हवाई मार्ग का प्रयोग करते हैं। यह चंडीगढ़ से 200 कि. मी., जालंधर से 118 कि. मी., पठानकोट से 105 कि. मी., शिमला से 180 कि. मी. दूर है। निकटतम रेलवे स्टेशन ज्वालामुखी रोड रानीताल है और गगल हवाई अड्डे से हवाई मार्ग से पहुँचा जा सकता है।
श्री ज्वालामुखी मंदिर का इतिहास
हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के रूप में जाना जाता है जिसका अर्थ है देवी-देवताओं की भूमि। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती का जन्म तब हुआ था जब देवताओं ने अपनी पूरी ऊर्जा जमीन पर केंद्रित कर दी थी। देवता दैत्यों के अत्याचार से किसी प्रकार की रक्षा के लिए देख रहे थे। देवी सती का जन्म और पालन-पोषण प्रजापति दक्ष ने किया और बाद में उन्होंने भगवान शिव से विवाह किया। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया जिसमें भगवान शिव को छोड़कर सभी को आमंत्रित किया गया। अपने पिता के ऐसे कृत्य से सती ने अपमानित महसूस किया। उसने यज्ञ में आत्मदाह करके प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। उसके इस कृत्य से, भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उसकी लाश को तीनों लोकों में ले गए।
भगवान शिव के कृत्य से सभी देवता क्रोधित हो गए और उन्होंने मदद के लिए भगवान विष्णु से संपर्क करने का फैसला किया। भगवान विष्णु उनकी मदद के लिए कार्रवाई करने का फैसला किया और इसलिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को काट दिया, जो विभिन्न स्थानों पर 51 टुकड़ों में बिखर गया, और ये स्थान शक्तिपीठ हैं जिन्हें देवी सती का शक्ति केंद्र माना जाता है।
ज्वालामुखी माँ दुर्गा के उन रूपों में से एक है जहाँ सती की जीभ गिरी थी। देवी को छोटी-छोटी ज्वाला माना जाता है जो सदियों पुरानी चट्टानों में हर रोज प्रज्वलित होती हैं।
उत्पत्ति और महत्व
51 शक्तिपीठों में श्री ज्वालामुखी मंदिर की मान्यता सर्वोपरि है। इस मंदिर का मुख्य महत्व यह है कि पूजा करने के लिए कोई मूर्ति नहीं है। मंदिर में ज्वालाएँ विद्यमान हैं जहाँ उपासक इन ज्वालाओं का पूजन करते हैं, जिन्हें देवी सती का रूप माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा दक्ष द्वारा किए गए विशाल यज्ञ में उनकी बेटी सती और उनके पति शिव को आमंत्रित नहीं किया गया था। माता सती बिना बुलाए ही यज्ञ में पहुंच गईं, लेकिन अपने पति शिव के अपमान के कारण उन्होंने कुंड में कूदकर अपना शरीर त्याग दिया। शिव के भयानक रूप को देखकर देवताओं ने शिव के क्रोध को शांत करने के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना की। पूरी सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए विष्णु जी ने सती के शरीर के कई टुकड़े कर दिए और जहां-जहां सती के अंग गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना की गई। जिस स्थान पर सती की जीबा गिरी थी, देवी ज्वाला के रूप में प्रकट हुईं। यह स्थान श्री ज्वालामुखी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मंदिर निर्माण
एक पौराणिक कथा के अनुसार, सतयुग में एक चरवाहा राजा भूमिचंद की गायों के झुंड को इस स्थान के आसपास चराने के लिए लाया करता था। दिव्य लीला से परिपूर्ण एक कन्या द्वारा दिन में दुधारू गाय का दूध निकाला जाता था। यह गाय गौशाला में रात को दूध नहीं देती थी। पता चला तो उस जगह पर आग की लपटें दिखाई दी। इस पवित्र स्थान के बारे में सपना देखने वाले राजा भूमि चंद ने एक मंदिर बनाने का फैसला किया जिसे ज्वालामुखी मंदिर के रूप में जाना जाने लगा। पूजा का अधिकार शक द्वीप से भोजक जाति के दो ब्राह्मणों को देवी की पूजा करने के लिए दिया गया था। उन्हीं ब्राह्मणों के वंशज आज तक देवी ज्वालामुखी के दरबार में पूजा करते आ रहे हैं।
मुख्य ज्योति और अन्य पवित्र रोशनी के दर्शन
श्री ज्वालामुखी मंदिर में देवी माँ को नवज्योति के रूप में पूजा जाता है | ये ज्योतियां ही नवदुर्गा के रूप में संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना करने वाली ज्योतियां हैं जिनके सेवक हैं सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण इन नव आलोकित देवियों के तथा इनकी कृपा से निम्नलिखित पुण्य फल होते हैं:-
- महाकाली - भक्ति और मुक्ति की देवी
- अन्नपूर्णा - भोजन की देवी
- चंडी - शत्रु नाशक
- हिंगलाज भवानी - व्यापमं का विनाशक
- विन्ध्यवासनि -शौका विनाशनी
- महालक्ष्मी - धन और वैभव की देवी
- सरस्वती - विद्या दात्री
- अम्बिका - संतान प्रदाता
- अंजना देवी - आयु और सुख की देवी
मंदिर गुंबद वास्तुकला
अहमद शाह अब्दाली को महाराणा रणजीत सिंह ने 1765 में खैबर दरवाजा, वालाकोट अफगानिस्तान में हराया था, जिसे विदेशी आक्रमणकारियों के द्वार के रूप में भी जाना जाता है। इस विजय में महाराणा रणजीत सिंह को कोहिनूर हीरा तथा स्वर्ण भण्डार प्राप्त हुए। महाराणा द्वारा प्राप्त सोने के भंडार में से 50% का उपयोग स्वर्ण मंदिर, अमृतसर के मुख्य गुंबद के निर्माण में, 25% ज्वालामुखी मंदिर में और 25% काशी विश्वनाथ मंदिर में किया गया था। मुख्य गुंबद मंडप शैली में बनाया गया है, वर्तमान मंदिर उसी रूप में है। तत्पश्चात मंदिर का मुख्य चांदी का दरवाजा महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र द्वारा दान किया गया था ।
ध्यानु भगत की कहानी
कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल में नादौन गांव निवासी ध्यानू भगत अन्य यात्रियों के साथ मंदिर के दर्शन करने की इच्छा से यात्रा कर रहे थे। लोगों की भीड़ देखकर अकबर के सैनिक उसे राजा के दरबार में ले आए और इस यात्रा का कारण और मंदिर के महत्व के बारे में पूछताछ की। ध्यानू भगत ने ज्वाला माई की महिमा की, जो पूरी दुनिया की मालिक थी, जिस पर अकबर ने भगत की परीक्षा लेने के लिए एक घोड़े का सिर काट दिया और ध्यानू भगत को अपनी ज्वाला माई से घोड़े को पुनर्जीवित करने के लिए कहा। ध्यानू भगत ज्वाला माई के दरबार में आए और श्रद्धापूर्वक निवेदन किया कि यदि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं करते हैं, तो वह भी अपना सिर काटकर महामाई को समर्पित कर देंगे। कुछ क्षण तक देवी के चमत्कार की परीक्षा करने के बाद ध्यानु भगत ने अपना सिर काटकर भगवती के चरणों में रख दिया। इस पर भगवती साक्षात रूप में प्रकट हुईं और उन्होंने ध्यानू भगत का सिर और घोड़े का सिर भी अकबर के दरबार में लगा दिया। ध्यानू भगत की भक्ति से प्रसन्न होकर माता ने अभय दान से वरदान दिया कि जो भी भक्त सच्चे मन से मेरे दरबार में आएगा और सिर के स्थान पर नारियल चढ़ाएगा, मैं उसकी सर्व मंगलकामना स्वीकार करूंगी।
अकबर की कहानी / बादशाह अक्बर का किस्सा
ध्यानू भगत की भक्ति और श्रद्धा से प्रभावित होकर, राजा अकबर ने अपने सैनिकों को ज्वालामुखी भेजा, यह राजा अकबर को बताया गया कि उक्त स्थान पर जमीन से बिना किसी ईंधन, घी आदि के ज्वाला प्रज्वलित हो रही है। अकबर ने इन लपटों को रोकने के लिए एक जल नहर से कोशिश की लेकिन माँ भगवती ने अपने ज्वाला रूप को बनाए रखा। इसके बाद लोहे के बड़े-बड़े कड़ाहों से इन पवित्र ज्वालाओं को बुझाने का प्रयास किया गया, लेकिन लोहे को चीरती हुई ज्वाला प्रकट हुई। दरबारियों की सलाह पर बादशाह अकबर सोने की छत्र लेकर ज्वाला माई के दर्शन के लिए पहुंचे, लेकिन उनका घमंड तोड़ने के लिए भगवती ने छत्र का रूप बदल दिया। यह छत्र एक ऐसी धातु में परिवर्तित हो गया जो न लोहे की है, न तांबे की है और न कांच की है। यह छत्र आज भी मंदिर परिसर में मौजूद है।
ऐतिहासिक विरासत
तारीख-ए-फिरोजशाही के अनुसार ज्वालामुखी मंदिर में तेरह सौ पुस्तकों का एक पुस्तकालय था, जिसमें से एक पुस्तक का अनुवाद फिरोज शाह तुगलक ने किया था।
1620 ई. में काँगड़ा का किला हड़पने के बाद जहाँगीर कांगड़ा भी आया और इस मन्दिर का उल्लेख किया गया है।
1809 ई. में गोरखा आक्रमणकारियों को कांगड़ा से खदेड़ने के बाद ज्वालामुखी मंदिर में महाराणा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद के बीच एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे।
पूजा विधि
श्री ज्वालामुखी मंदिर में गुरु परंपरा की पूर्ति के लिए वैवाहिक व वंशानुगत पुजारी को पूजा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, यह परंपरा पिछले सैकड़ों वर्षों से निभाई जा रही है. इस परम्परा के अनुसार विवाहोपरान्त दीक्षा प्राप्त करने पर ही पुरोहित पूजा करने का अधिकारी होता है जबकि तीर्थयात्रा की दीक्षा पिता द्वारा दी जाती है इस वंशानुगत पुरोहित वर्ग को भोजक वंश का दर्जा प्राप्त है।
रुचि के अन्य स्थान
गोरख डिब्बी – यह स्थान ज्वालामुखी मंदिर के दाहिनी ओर है। गोरखनाथ जी ने यहां तपस्या की थी। कुंड का पानी उबलता रहता है। पानी वाकई ठंडा है। यहां एक छोटे से तालाब में जलता हुआ अगरबत्ती दिखाने पर पानी पर बड़ा सा प्रकाश दिखाई देता है। इसे शास्त्रों में रुद्रकुण्ड नाम से लिखा गया है। कहा जाता है कि नागार्जुन गोरखनाथ जी के साथ आए थे।
राधा-कृष्ण मंदिर – गोरख डिब्बी के पास एक राधा-कृष्ण मंदिर है जो कटोच राजाओं के समय का है।
शिव-शक्ति - यह स्थान कुछ पंद्रह सीढ़ियां चढ़कर गोरख डिब्बी के ऊपर है। यहां शिवलिंग के साथ ज्योति के दर्शन होते हैं, इसलिए इस स्थान का नाम शिव-शक्ति है।
सिद्ध नागार्जुन- यह स्थान एक फलाँग सीढ़ियां चढ़कर शिव-शक्ति के ऊपर है। इसके रास्ते में दो शिवालय हैं, यहाँ कोई डेढ़ हाथ ऊँची एक पत्थर की मूर्ति है जिसे सिद्ध नागार्जुन कहते हैं । उनके बारे में ऐसी प्रसिद्ध कहावत है कि जब गुरु गोरख नाथ जी खिचड़ी लाने गए और काफी समय बीत जाने के बाद भी वापस नहीं आए तो उन्हें देखने के लिए पहाड़ी पर चढ़ गए कि गुरुजी कहां गए थे। वहाँ आकर उन्होंने गुरुजी को नहीं देखा, अन्त में उन्हें यह स्थान बहुत मनोरम लगा और वे यहाँ ध्यान लगाकर बैठ गए।
दस-पंद्रह साल पहले यात्रियों को यहां चढऩे में काफी परेशानी होती थी, लेकिन अब यहां के अधिकारियों के उद्योग से सीढ़ियां बन गई हैं, उतनी परेशानी नहीं लगती।
अंबिकेश्वर - यह स्थान नागार्जुन के पास है और यह स्थान मन्मत्त भैरव है जो अंबिकेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है।
अष्टदशभुजी देवी – यह स्थान भी अति प्राचीन है, जो भगवती ज्वालामुखी के मंदिर से पश्चिम की ओर एक मील की दूरी पर विद्यमान है। यहां एक विशाल तालाब है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसमें नहाने से फुलवैहरी (सफेद कोढ़) दूर हो जाता है। यहां श्मशान घाट भी है।
टेढ़ा मंदिर - यह मंदिर भगवान राम को समर्पित मुख्य मंदिर से लगभग 2 किमी दूर स्थित है।
भैरव नाथ मंदिर – यह मंदिर मुख्य मंदिर से लगभग 1 किमी दूर खूबसूरत जंगल में स्थित है।
प्रमुख पूजा विधान
श्री ज्वालामुखी मंदिर में स्वाहा और स्वधा दोनों पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। अग्निदेव में देवता स्वाहा से तृप्त होते हैं और पितर स्वधा से तृप्त होते हैं। मंदिर में मुख्य पूजा अनुष्ठान निम्नलिखित हैं: -
ॐ हवन:- श्री ज्वालामुखी मंदिर में हवन यज्ञ करने का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि इस मंदिर में मां भगवती की जीभ की पूजा की जाती है और हवन यज्ञ में किए गए एक अनुष्ठान से 10,000 यज्ञों का फल प्राप्त होता है।
खप्पर पूजन:- मंदिर के मुख्य द्वार पर स्थित योगिनी कुंड में खप्पर पूजा की जाती है, इससे पितृ दोष और वास्तु दोष समाप्त होता है।
ॐ कौमारी पूजन:- ज्वालामुखी मंदिर में माता सती के स्त्री रूप की पूजा की जाती है। कन्या पूजन से माता की विशेष कृपा प्राप्त होती है, इस पूजा में मनोकामना सिद्धि व विजय व धन प्राप्ति की पूजा विशेष होती है।
श्री ज्वालामुखी मंदिर की पूजा विधि
श्री ज्वालामुखी देवी की पूजा तीन प्रकार से की जाती है:-
- पंचोपचार विधि:- इस विधि में मां की सेवा में सुगंध, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित किए जाते हैं।
- दशोपचार विधि:- पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, गंध, पुष्प अगरबत्ती, नैवेद्य दीप से पूजन किया जाता है।
- षोडशोपचार विधि:- आसन, स्वागत पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधु, शुद्ध स्नान, वस्त्र,अभूषण , चंदन, इत्र, पुष्प आदि से मातेश्वरी की पूजा करने का विधान है।
श्री ज्वालामुखी मंदिर के प्रमुख उत्सव
- मूर्ति रूप में माता ज्वाला जी की जयंती हर साल फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है। इस मूर्ति रूप की स्थापना 1965 में गुलेर वंश के राजा बलदेव सिंह ने की थी।
- नववर्ष पूजा :- प्रत्येक चैत्र मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा में स्थापना एवं ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ होने पर ध्वजारोहण, पूजन किया जाता है।
- नवरात्रि पर्व:- चैत्र नवरात्रि और शरद नवरात्रि।
- गुप्त नवरात्रि पर्व:- माघ और आषाढ़ गुप्त नवरात्रि।
ज्वालामुखी मंदिर ट्रस्ट द्वारा श्रद्धालुओं को सुविधाएं एवं समाज कल्याण के कार्य
वर्तमान में मंदिर द्वारा भक्तों को निम्नलिखित सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं:
- तीर्थयात्रियों को मुफ्त लंगर
- गरीब कन्याओं के विवाह हेतु आर्थिक सहायता
- श्रद्धालुओं को निःशुल्क चिकित्सा सुविधा
- मंदिर ट्रस्ट संस्कृत कॉलेज चला रहा है
- राहत कोष में अंशदान
- तीर्थयात्रियों की सुरक्षा के लिए सुरक्षाकर्मियों की तैनाती
- मंदिर परिसर में साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था
- पानी और शौचालय की सुविधा
- यात्री निवास (मातृ सदन)
Shri Jwalamukhi Shaktipeeth
Introduction
श्री ज्वालामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्थित कालीधर की घाटी में समुद्र तल से 600 मीटर की ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्थित है। जिला मुख्यालय धर्मशाला से इस पवित्र स्थान की दूरी 50 कि. मी. है। यहां तक पहुंचने के लिए श्रद्धालु सड़क, रेल और हवाई मार्ग का प्रयोग करते हैं। यह चंडीगढ़ से 200 कि. मी., जालंधर से 118 कि. मी., पठानकोट से 105 कि. मी., शिमला से 180 कि. मी. दूर है। निकटतम रेलवे स्टेशन ज्वालामुखी रोड रानीताल है और गगल हवाई अड्डे से हवाई मार्ग से पहुँचा जा सकता है।
उत्पत्ति और महत्व
The recognition of Shri Jwalamukhi Temple is paramount among the 51 Shaktipeeths. According to mythology, his daughter Sati and her husband Shiva were not invited to the huge yagya performed by King Daksha. Mother Sati reached the yajna without being called, but as a humiliation of her husband Shiva, she jumped into the pool and abandoned her body. Seeing the terrible form of Shiva, the gods prayed to Lord Vishnu to pacify Shiva’s anger. In order to save the entire creation from the catastrophe, Vishnu ji divided the body of Sati into many pieces and Shakti Peeths were established at the places where the parts of Sati fell. The place where the soul of Sati fell, the goddess appeared in the form of flame. This place became famous by the name of Shri Jwalamukhi.
मंदिर और निर्माण
According to a legend, a shepherd used to bring a herd of cows of Emperor Bhumi Chand to graze around this place in Satyuga. A milch cow’s milk used to be taken out during the day by a girl full of divine leela. This cow did not give milk at night in the cowshed. When it was discovered, flames appeared at that place, on getting information about them, King Bhumi Chand got the temple built here and got the right to worship two Brahmins of Bhojak caste from Shak Dweep to worship the goddess. The descendants of the same Brahmins have been worshiping in the court of Goddess Jwalamukhi till date.
मंदिर गुंबद वास्तुकला
Ahmad Shah Abdali was defeated by Maharana Ranjit Singh in 1765 at Khyber Darwaza, Walakot Afghanistan, also known as the gate of foreign invaders. In this victory, Maharana Ranjit Singh got the Kohinoor diamond and gold deposits. Of the gold reserves received by Maharana, 50% was used in the construction of the main dome of Golden Temple, Amritsar, 25% in the Jwalamukhi temple and 25% in the Kashi Vishwanath temple. This magical dome has been built in the mandapa style, the present temple is in the same form. Thereafter, the main silver door of the temple was acquired by Bhutaraja Dilip Singh, son of Maharana Ranjit Singh.
ध्यानु भगत की कहानी
It is said that during the reign of Mughal emperor Akbar, Dhyanu Bhagat, a resident of Nadaun village, was traveling with other travelers with the desire to see the mother, seeing the crowd of people, Akbar’s soldiers brought him to the king’s court and the reason for this journey And asked the importance. Dhyanu Bhagat glorified Jwala Mai, the master of the whole world, on which Akbar cut off the head of a horse to test Bhagat and asked Dhyanu Bhagat to revive the horse from his Jwala Mai. kept. Dhyanu Bhagat came to the court of Jwala Mai and reverently requested that if you do not accept my prayer, then he will also cut off his head and dedicate it to Mahamayi. After examining the miracle of the goddess for a few moments, Dhyanu Bhagat cut off his head and placed it at the feet of Bhagwati. On this, Mother Bhagwati appeared in a real form and attached the head of Dhyanu Bhagat herself and in Akbar’s court also the head of the horse was attached to the torso. Pleased with the devotion of Dhyanu Bhagat, the mother gave a boon with abhay donation that any devotee who will meditate on my form with a sincere heart in my court and offer coconut in place of head, I will accept his all-good wishes.
अकबर की कहानी / बादशाह अक्बर का किस्सा
Impressed by the devotion and reverence of Dhyanu Bhagat, King Akbar sent a volcano from his soldiers, a message was given to King Akbar that the flames from the ground at the said place are ignited without any fuel, ghee, etc. Akbar tried to stop these flames by constructing a water canal to stop these flames, but Mother Bhagwati maintained her flame form. After that an attempt was made to extinguish these holy flames with huge iron pans, but the flame appeared by tearing the iron. King Akbar, on the advice of the courtiers, reached Sawman’s gold umbrella to see Jwala Mai, but to break his pride, Bhagwati changed the form of the umbrella so that this umbrella was neither of iron, nor of copper nor of glass. This umbrella still exists today.
ऐतिहासिक विरासत
According to Tarikh-e-Firozshahi, there was a library of thirteen hundred books in one in the Jwalamukhi temple, out of which one book was translated by Firoz Shah Tughlaq.
1620 ई. में काँगड़ा का किला हड़पने के बाद जहाँगीर कांगड़ा भी आया और इस मन्दिर का उल्लेख किया गया है।
In 1809 AD, after the Gorkha invaders were driven out of Kangra, Sandi was signed between Maharana Ranjit Singh and Raja Sansar Chand in the Jwalamukhi temple.
पूजा विधि
श्री ज्वालामुखी मंदिर में गुरु परंपरा की पूर्ति के लिए वैवाहिक व वंशानुगत पुजारी को पूजा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, यह परंपरा पिछले सैकड़ों वर्षों से निभाई जा रही है. इस परम्परा के अनुसार विवाहोपरान्त दीक्षा प्राप्त करने पर ही पुरोहित पूजा करने का अधिकारी होता है जबकि तीर्थयात्रा की दीक्षा पिता द्वारा दी जाती है इस वंशानुगत पुरोहित वर्ग को भोजक वंश का दर्जा प्राप्त है।
रुचि के अन्य स्थान
Apart from Bhagwati Jwalamukhi in Kshetra Jwalamukhi, the other places of interest are:
गोरख डिब्बी – This place is on the right side by climbing ten steps in the circumambulation of the Jwalamukhi temple. Gorakhnathji did penance here. Those who had gone to ask for khichdi after holding the box did not come back with khichdi and the water in the box did not get hot. The water of the kund keeps on boiling. The water is really cold. Here, on showing a burning lamp of incense in a small pond, a big light appears on the water. It is written in the scriptures by the name Rudra-kunda. Nagarjuna is said to have come with these Gorakhji.
राधा-कृष्ण मंदिर – There is a Radha-Krishna temple near Gorakh Dibbi which dates back to the time of the Katoch kings.
शिव-शक्ति – This place is above Gorakh Dibbi by climbing some fifteen steps. Here there is a vision of Jyoti with Shivling, hence the name of this place is Shiva-Shakti.
Siddhi Nagarjuna– This place is above Shiva-Shakti by climbing one of the furlong steps. There are two pagodas on its way, here there is a stone-statue some one and a half cubits high. This is called Siddha Nagarjuna. There is such a famous saying about them that when Guru Gorakhnathji went to bring khichdi and did not return even after a long time, he climbed the hill to see where Guruji had left. After coming there, they did not see Guruji, in the end they found this place to be very picturesque and sat here after meditating.
दस-पंद्रह साल पहले यात्रियों को यहां चढऩे में काफी परेशानी होती थी, लेकिन अब यहां के अधिकारियों के उद्योग से सीढ़ियां बन गई हैं, उतनी परेशानी नहीं लगती।
अंबिकेश्वर – This place is one furlong east of Nagarjuna and this place is Manmatt Bhairav which is famous as Ambikeshwar. Their philosophy is also important. The officials here have also put a good effort in upgrading.
अष्टदशभुजी देवी – This place is also very ancient, which is present at a distance of one mile towards west from the temple of Bhagwati Jwalamukhi. There is a huge pond here in which it is said that by bathing, Phulbahari (white leprosy) goes away. There is also a crematorium here.
The following hymns are recited by the priests during the sleep-aarti of Durga Jwalamukhi, which seems to be very good.
Worship of Shri Jwalamukhi Devi
श्री ज्वालामुखी देवी की पूजा तीन प्रकार से की जाती है:-
- Panchopchar Vidhi:- In this method, scent, flowers, incense, lamp, naived etc. are offered in the service of the mother.
- Dashopachar method: – Worship is done with Padya, Arghya, Achaman, Bath, Gandha, Flower incense, Naived lamp.
- Shodashopachara method: – There is a law to worship Mateshwari with asana, welcome padya, arghya, achaman, honey, pure bath, clothes, bhushan, sandalwood, perfume, flowers etc.
Major Festivals of Shri Jwala Ji Temple
- मूर्ति रूप में माता ज्वाला जी की जयंती हर साल फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है। इस मूर्ति रूप की स्थापना 1965 में गुलेर वंश के राजा बलदेव सिंह ने की थी।
- New Year Puja: – In every Chaitra month Shukla Paksha Pratipada, flag hoisting, worship is celebrated on the occasion of establishment and beginning of summer season.
- नवरात्रि पर्व:- चैत्र नवरात्रि और शरद नवरात्रि।
- गुप्त नवरात्रि पर्व:- माघ और आषाढ़ गुप्त नवरात्रि।
Facilitation of devotees and social welfare work by Jwalamukhi Mandir Trust
Presently the following facilities are being provided to the devotees by the temple trust under the guidance of Honorable Commissioner Temple and District Collector Kangra:-
- Free langar arrangement
- Grant for marriage of poor girls
- Medicine distribution to devotees
- Operation of Sanskrit College
- राहत कोष में अंशदान
- Deployment of security personnel for the safety of passengers
- मंदिर परिसर में साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था
- Water and toilet system
- Yatri Niwas (Mother House)
Shri Jwalamukhi Shaktipeeth
Introduction
श्री ज्वालामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्थित कालीधर की घाटी में समुद्र तल से 600 मीटर की ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्थित है। जिला मुख्यालय धर्मशाला से इस पवित्र स्थान की दूरी 50 कि. मी. है। यहां तक पहुंचने के लिए श्रद्धालु सड़क, रेल और हवाई मार्ग का प्रयोग करते हैं। यह चंडीगढ़ से 200 कि. मी., जालंधर से 118 कि. मी., पठानकोट से 105 कि. मी., शिमला से 180 कि. मी. दूर है। निकटतम रेलवे स्टेशन ज्वालामुखी रोड रानीताल है और गगल हवाई अड्डे से हवाई मार्ग से पहुँचा जा सकता है।
उत्पत्ति और महत्व
The recognition of Shri Jwalamukhi Temple is paramount among the 51 Shaktipeeths. According to mythology, his daughter Sati and her husband Shiva were not invited to the huge yagya performed by King Daksha. Mother Sati reached the yajna without being called, but as a humiliation of her husband Shiva, she jumped into the pool and abandoned her body. Seeing the terrible form of Shiva, the gods prayed to Lord Vishnu to pacify Shiva’s anger. In order to save the entire creation from the catastrophe, Vishnu ji divided the body of Sati into many pieces and Shakti Peeths were established at the places where the parts of Sati fell. The place where the soul of Sati fell, the goddess appeared in the form of flame. This place became famous by the name of Shri Jwalamukhi.
मंदिर और निर्माण
According to a legend, a shepherd used to bring a herd of cows of Emperor Bhumi Chand to graze around this place in Satyuga. A milch cow’s milk used to be taken out during the day by a girl full of divine leela. This cow did not give milk at night in the cowshed. When it was discovered, flames appeared at that place, on getting information about them, King Bhumi Chand got the temple built here and got the right to worship two Brahmins of Bhojak caste from Shak Dweep to worship the goddess. The descendants of the same Brahmins have been worshiping in the court of Goddess Jwalamukhi till date.
मंदिर गुंबद वास्तुकला
Ahmad Shah Abdali was defeated by Maharana Ranjit Singh in 1765 at Khyber Darwaza, Walakot Afghanistan, also known as the gate of foreign invaders. In this victory, Maharana Ranjit Singh got the Kohinoor diamond and gold deposits. Of the gold reserves received by Maharana, 50% was used in the construction of the main dome of Golden Temple, Amritsar, 25% in the Jwalamukhi temple and 25% in the Kashi Vishwanath temple. This magical dome has been built in the mandapa style, the present temple is in the same form. Thereafter, the main silver door of the temple was acquired by Bhutaraja Dilip Singh, son of Maharana Ranjit Singh.
ध्यानु भगत की कहानी
It is said that during the reign of Mughal emperor Akbar, Dhyanu Bhagat, a resident of Nadaun village, was traveling with other travelers with the desire to see the mother, seeing the crowd of people, Akbar’s soldiers brought him to the king’s court and the reason for this journey And asked the importance. Dhyanu Bhagat glorified Jwala Mai, the master of the whole world, on which Akbar cut off the head of a horse to test Bhagat and asked Dhyanu Bhagat to revive the horse from his Jwala Mai. kept. Dhyanu Bhagat came to the court of Jwala Mai and reverently requested that if you do not accept my prayer, then he will also cut off his head and dedicate it to Mahamayi. After examining the miracle of the goddess for a few moments, Dhyanu Bhagat cut off his head and placed it at the feet of Bhagwati. On this, Mother Bhagwati appeared in a real form and attached the head of Dhyanu Bhagat herself and in Akbar’s court also the head of the horse was attached to the torso. Pleased with the devotion of Dhyanu Bhagat, the mother gave a boon with abhay donation that any devotee who will meditate on my form with a sincere heart in my court and offer coconut in place of head, I will accept his all-good wishes.
अकबर की कहानी / बादशाह अक्बर का किस्सा
Impressed by the devotion and reverence of Dhyanu Bhagat, King Akbar sent a volcano from his soldiers, a message was given to King Akbar that the flames from the ground at the said place are ignited without any fuel, ghee, etc. Akbar tried to stop these flames by constructing a water canal to stop these flames, but Mother Bhagwati maintained her flame form. After that an attempt was made to extinguish these holy flames with huge iron pans, but the flame appeared by tearing the iron. King Akbar, on the advice of the courtiers, reached Sawman’s gold umbrella to see Jwala Mai, but to break his pride, Bhagwati changed the form of the umbrella so that this umbrella was neither of iron, nor of copper nor of glass. This umbrella still exists today.
ऐतिहासिक विरासत
According to Tarikh-e-Firozshahi, there was a library of thirteen hundred books in one in the Jwalamukhi temple, out of which one book was translated by Firoz Shah Tughlaq.
1620 ई. में काँगड़ा का किला हड़पने के बाद जहाँगीर कांगड़ा भी आया और इस मन्दिर का उल्लेख किया गया है।
In 1809 AD, after the Gorkha invaders were driven out of Kangra, Sandi was signed between Maharana Ranjit Singh and Raja Sansar Chand in the Jwalamukhi temple.
पूजा विधि
श्री ज्वालामुखी मंदिर में गुरु परंपरा की पूर्ति के लिए वैवाहिक व वंशानुगत पुजारी को पूजा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, यह परंपरा पिछले सैकड़ों वर्षों से निभाई जा रही है. इस परम्परा के अनुसार विवाहोपरान्त दीक्षा प्राप्त करने पर ही पुरोहित पूजा करने का अधिकारी होता है जबकि तीर्थयात्रा की दीक्षा पिता द्वारा दी जाती है इस वंशानुगत पुरोहित वर्ग को भोजक वंश का दर्जा प्राप्त है।
रुचि के अन्य स्थान
Apart from Bhagwati Jwalamukhi in Kshetra Jwalamukhi, the other places of interest are:
गोरख डिब्बी – This place is on the right side by climbing ten steps in the circumambulation of the Jwalamukhi temple. Gorakhnathji did penance here. Those who had gone to ask for khichdi after holding the box did not come back with khichdi and the water in the box did not get hot. The water of the kund keeps on boiling. The water is really cold. Here, on showing a burning lamp of incense in a small pond, a big light appears on the water. It is written in the scriptures by the name Rudra-kunda. Nagarjuna is said to have come with these Gorakhji.
राधा-कृष्ण मंदिर – There is a Radha-Krishna temple near Gorakh Dibbi which dates back to the time of the Katoch kings.
शिव-शक्ति – This place is above Gorakh Dibbi by climbing some fifteen steps. Here there is a vision of Jyoti with Shivling, hence the name of this place is Shiva-Shakti.
Siddhi Nagarjuna– This place is above Shiva-Shakti by climbing one of the furlong steps. There are two pagodas on its way, here there is a stone-statue some one and a half cubits high. This is called Siddha Nagarjuna. There is such a famous saying about them that when Guru Gorakhnathji went to bring khichdi and did not return even after a long time, he climbed the hill to see where Guruji had left. After coming there, they did not see Guruji, in the end they found this place to be very picturesque and sat here after meditating.
दस-पंद्रह साल पहले यात्रियों को यहां चढऩे में काफी परेशानी होती थी, लेकिन अब यहां के अधिकारियों के उद्योग से सीढ़ियां बन गई हैं, उतनी परेशानी नहीं लगती।
अंबिकेश्वर – This place is one furlong east of Nagarjuna and this place is Manmatt Bhairav which is famous as Ambikeshwar. Their philosophy is also important. The officials here have also put a good effort in upgrading.
अष्टदशभुजी देवी – This place is also very ancient, which is present at a distance of one mile towards west from the temple of Bhagwati Jwalamukhi. There is a huge pond here in which it is said that by bathing, Phulbahari (white leprosy) goes away. There is also a crematorium here.
The following hymns are recited by the priests during the sleep-aarti of Durga Jwalamukhi, which seems to be very good.
Worship of Shri Jwalamukhi Devi
श्री ज्वालामुखी देवी की पूजा तीन प्रकार से की जाती है:-
- Panchopchar Vidhi:- In this method, scent, flowers, incense, lamp, naived etc. are offered in the service of the mother.
- Dashopachar method: – Worship is done with Padya, Arghya, Achaman, Bath, Gandha, Flower incense, Naived lamp.
- Shodashopachara method: – There is a law to worship Mateshwari with asana, welcome padya, arghya, achaman, honey, pure bath, clothes, bhushan, sandalwood, perfume, flowers etc.
Major Festivals of Shri Jwala Ji Temple
- मूर्ति रूप में माता ज्वाला जी की जयंती हर साल फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है। इस मूर्ति रूप की स्थापना 1965 में गुलेर वंश के राजा बलदेव सिंह ने की थी।
- New Year Puja: – In every Chaitra month Shukla Paksha Pratipada, flag hoisting, worship is celebrated on the occasion of establishment and beginning of summer season.
- नवरात्रि पर्व:- चैत्र नवरात्रि और शरद नवरात्रि।
- गुप्त नवरात्रि पर्व:- माघ और आषाढ़ गुप्त नवरात्रि।
Facilitation of devotees and social welfare work by Jwalamukhi Mandir Trust
Presently the following facilities are being provided to the devotees by the temple trust under the guidance of Honorable Commissioner Temple and District Collector Kangra:-
- Free langar arrangement
- Grant for marriage of poor girls
- Medicine distribution to devotees
- Operation of Sanskrit College
- राहत कोष में अंशदान
- Deployment of security personnel for the safety of passengers
- मंदिर परिसर में साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था
- Water and toilet system
- Yatri Niwas (Mother House)
माता ज्वालामुखी मंदिर के पास पर्यटन स्थल
- माता बगलामुखी मंदिर
- कालेश्वर महादेव मंदिर
- पंच तीर्थ मंदिर
- राम मंदिर (टेढ़ा मंदिर)
- अष्टभुजा मंदिर
- बज्रेश्वरी देवी मंदिर कांगड़ा
- चामुंडा देवी मंदिर
- माता चिंतपूर्णी मंदिर
माता ज्वालामुखी मंदिर से दूरी
- माता बगलामुखी मंदिर = 15 km
- कालेश्वर महादेव मंदिर = 10 km
- पंच तीर्थ मंदिर = 10 km
- राम मंदिर (टेढ़ा मंदिर) = 2 km
- अष्टभुजा मंदिर = 2 km
- ब्रजेश्वरी देवी मंदिर कांगड़ा = 30 km
- चामुंड देवी मंदिर = 45 km
- माता चिंतपूर्णी मंदिर = 35 km
प्रशासनिक अधिकारी
मुख्य आयुक्त मंदिर - एवं - सचिव भाषा एवं संस्कृति विभाग (हि.प्र. शिमला)
सहायक आयुक्त (मंदिर)-एवं -उपमंडल अधिकारी (ना.) ज्वालामुखी
नाम :- श्री संजीव शर्मा, एच.ए.एस
संपर्क नंबर:- 01970-223100
ईमेल:- sdmjji-kan-hp@nic.in
आयुक्त (मंदिर) - एवं - उपायुक्त कांगड़ा
नाम:- श्री हेमराज बैरवा
संपर्क नंबर:- 01892-222705
Email:- kangratemple@gmail.com
मंदिर अधिकारी
नाम:- श्री. अनिल कुमार सोंधी (तहसीलदार ज्वालामुखी)
संपर्क करें:- 01970-222223
ईमेल:- Jwalajimainder222223@gmail.com
मंदिर के खुलने और बंद होने का समय
सर्दियों में
प्रातः 6:00 बजे से 11:30 बजे तक
दोपहर 11:30 बजे से 12:30 बजे तक भोग के लिए
दोपहर 12:30 बजे से रात 9:00 बजे तक
गर्मियों में
प्रातः 5.30 बजे से 11:30 बजे तक
दोपहर 11:30 बजे से 12:30 बजे तक भोग के लिए
दोपहर 12:30 बजे से रात 10:00 बजे तक
आरती का समय
सर्दियों में
प्रातः 5:30 बजे से 6:00 बजे तक
भोग के लिए सुबह 11:30 से दोपहर 12:30 बजे तक
सायं 6:00 बजे से 7:00 बजे तक
सायं आरती रात्रि 8:00 बजे से 8:40 बजे तक
गर्मियों में
प्रातः 5:00 बजे से 5:30 बजे तक
भोग के लिए सुबह 11:30 से दोपहर 12:30 बजे तक
सायं 7:00 बजे से 8:00 बजे तक
सायं आरती रात्रि 9:00 बजे से 9:40 बजे तक
लंगर की सुविधा
मंदिर ट्रस्ट द्वारा रोजाना दोपहर 12:30 बजे से दोपहर 2:30 बजे तक और शाम 6:30 बजे से रात 8:30 बजे तक तत्कालीन उपस्थित समस्त भक्तों को मुफ्त भोजन परोसा जाता है। नवरात्रों और अन्य प्रमुख त्योहारों के दौरान तीर्थयात्रियों को तीन बार मुफ्त लंगर प्रदान किया जाता है। मंदिर ट्रस्ट भक्तों को बेहतर, स्वच्छ और ताजा भोजन प्रदान करता है।
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